उत्तम खेती : जम्भवाणी दर्शन में खेती का वर्णन

उत्तम खेती : जम्भवाणी दर्शन में खेती का वर्णन

भारत कृषि प्रधान देश है, जहां तीन चौथाई जनसंख्या खेती पर निर्भर है। बाकी जनसंख्या भी किसी न किसी रूप से खेती से जुड़ी हुई है और इस पर या इसके उत्पादों पर निर्भर है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही खेती होती आयी है। इसके प्रमाण प्राचीन सभ्यताओं के अवशेषों में और प्राचीन ग्रंथों में भी मिलते हैं। वेदों में भी खेती का महत्व बताया है क्योंकि यह लोगों, पालतू पशुओं का भोजन और आजीविका का मुख्य साधन है।

बिश्नोई समाज भी मूलतः कृषि और पशुपालक समाज ही रहा है। तो क्या ऐसा हो सकता है कि गुरु जाम्भोजी ने खेती के बारे में हमे कोई दिशा निर्देश ना दिए हो या जाम्भाणी साहित्य में इसका वर्णन ना हो।

 गुरु जाम्भोजी ने अपनी सब्दवाणी में प्रकृति, बारिश, धरती, वनस्पति, जीवों, खेती, जमीन, किसानों, कृषक जीवन, बीज, अनाज, जल, रखवाली, पशुपालन, बैलों, खेती की मर्यादा का सुंदर वर्णन किया है। 

तो आइए आज इस लेख में खेती पर चर्चा करते है और जानने की कोशिश करते है कि गुरु जाम्भोजी ने हमें किस तरह की खेती करने की शिक्षा दी थी। हमें बिश्नोई पंथ के सिद्धान्तों के अनुसार किस तरह की खेती करनी चाहिए।

उत्तम खेती : जम्भवाणी दर्शन में खेती का वर्णन


बिश्नोई पंथ के 29 नियमों में से एक नियम है 'अमर रखावे थाट बेल बधिया ना करावें' अर्थात् पशुओं के लिये शरणस्थल बनाएं जिससे उन्हें बेमौत मरने से बचाया जा सके और बेल खस्सी (नपुसंक) नहीं करें।

एक अन्य नियम है:

 जीव दया पालनी, रूंख लीलो नही घावे

जीवों पर दया करें और हरे वृक्ष नहीं काटें। यानी हमे खेती करते समय भी यह ध्यान रखना है कि जीवों पर दया करें, चाहे वो बछड़ा, पाडा, बैल, ऊंट ही क्यों ना हो। पशुपालन के समय भी यही दया का भाव रखना है। दूध नही देने वाली गाय भैंस को घर से निकालना पाप है, क्योंकि वह अबोल पशु भी भूखा प्यासा भटकता हुआ, बूचड़खानों की भेंट चढ़ जाता है। और हरे वृक्ष नही काटने है। वन के हरे वृक्ष तो बिल्कुल ही नही काटने है। कटे हुए पेड़ों के बदले में और नए पेड़ लगाएं। जो लगे हुए पेड़ है उनकी देखभाल और रक्षा करें।

 संध्या मंत्र में कहा है: भूख को पालन अन्न अहारूं अर्थात् भूख की पूर्ति/ निवारण अन्न से ही हो सकती है। और अन्न खेती से ही उत्पन्न होता है। शब्द 3 में आया है :जिहिं हाकणड़ी बलद जूं हाके यानी जो बेल हांकने की साधारण लकड़ी होती है।

सब्द 9 में गुरु जाम्भोजी कहते हैं

भाई नाउँ बलद पियारो, ताके गले करद क्यूं सारो

 बैल तो भाई से भी अधिक प्रिय होता है, उसके गले पर छुरी/तलवार क्यों चलाते हो। यानि हमें बेलों पर कोई अत्याचार नहीं करना चाहिए। लेकिन देखा गया है कि हम किसान लोग बछड़े को उसके हक का दूध भी नही पिलाते है और उस कमजोर बच्चे को घर से निकाल देते है, जो भूखा प्यासा दर दर की ठोकर खाता हुआ, बूचड़खाने तक पहुंच जाता है। हमें ऐसा करने की बजाय उनकी घर में ही या नंदीशाला बनाकर रक्षा और देखभाल करनी चाहिए।

सब्द 15 में गुरु जाम्भोजी समझाते है: 

सो पति बिरखा सींच प्राणी, जिहिं का मीठा मूल स मुलुं

हे प्राणी! उस वृक्ष को मधुर जल से सींचो जिसके फल, फूल, समूल ही मीठे हों (किसी के काम आते हो) यानी हमें अपनी फसल, पेड़ों को समय से और अच्छे जल से सिंचित करना चाहिए ताकि हमे फल भी अच्छे ही मिलें।

सब्द 18 में गुरु जाम्भोजी कहते है मरणत माघ संघारत खेती, के के अवतारी रोवत राही जिसका अभिप्राय है कि पेड़-पौधों, फसल पर आये हुए फूल, मंजरी, फल इत्यादि नष्ट होते हैं तो किसान रोता है और अवतारी पुरुष भी रोते हैं।

सब्द 20 में जाम्भोजी बताते है जां जां दया न मया, तां तां बिकरम कया अर्थात् किसी भी कार्य में जहां दया और ममता नहीं होती है वहां शुभ कर्म नही हो सकते हैं। यही बात खेती और पशुपालन के कार्यो में भी लागू होती है।

सब्द 22 में गुरु जाम्भोजी कहते है आभे अमी झुरायो, कालर करसण कियो अर्थात् जब आसमान अमृत रूपी बारिश करता है तो कल्लर (ऊसर/बंजर) भूमि भी कृषि योग्य और उपजाऊ हो जाती है। लेकिन फिर भी अगर किसान समय पर खेती नही करता है तो गलती उसी की है। यहां हमें यह भी सीख मिलती है कि खेती का हर कार्य समय पर ही करना चाहिए। कृषक को कभी आलस्य नही करना चाहिए।

इसी सब्द मे गुरु जाम्भोजी आगे कहते हैं अइया उत्तम खेती, को को इमरत रायो, .... को को कछु कमायो जिसका अर्थ है कि जब अमृत रूपी वर्षा , उत्तम भूमि पर पड़ती है तो बीज के अनुसार ही खेती/फसल होती है। कहीं गन्ना , कहीं निम्बोली, कहीं ढकोली, कहीं तुम्बा, कहीं आक अर्थात् जैसा बीज‌ की बुवाई होगी वही निपजेगा।

क्योंकि गुरु जाम्भोजी ने कहा है ताका फल बीज कूबीजूं, तो नीरे दोष किसायों यानी अगर बीज ही अच्छे नही होंगे तो जड़ें, टहनियां, पत्ते, फूल, फल अच्छे और मीठे नही होंगे; भले ही कितनी ही बारिश हो। इसमें बारिश का (पानी का) क्या दोष है। यहाँ हमें यह शिक्षा मिलती है कि अच्छे बीजों को छांटकर, भंडारण कर, उपचारित करके प्रयोग में लाना चाहिए ताकि फसल और फल अच्छे हो।

क्यूं क्यूं भये भाग ऊणा, क्यूं क्यूं कर्म बिहुणा,..... याकें कर्म इसायो, तो नीरे दोष किसायों

किसी के भाग्य खराब होने से तो किसी के कर्म ख़राब होने से ही खराब फल मिलता है। जैसे कर्म होंगे वैसे ही फल मिलेंगे, तो इसमें वर्षा या पानी का दोष नही है। यानी हमें खूब मेहनत, लग्न, स्नेह से समय पर खेती करनी चाहिए। 

नोट :- भाग्य भी कर्म के अनुसार ही होता है, चाहे इस जन्म के कर्म हो या पिछले जन्म के।

सब्द 30 में गुरू जाम्भोजी कहते है, भोम भली , किरसाण भी भला, बूठो है जहां बाहिये।। किरसण करो स्नेही खेती, तिसिया साख निपाइये।" जिसका अर्थ है जब भूमि अच्छी व तैयार की हो तथा किसान भी अच्छा हो और बारिश होने पर (या पानी लगाकर) समय से तैयारी व अच्छे बीजों द्वारा मेहनत और स्नेह से खेती करता है तो फसल निश्चित रूप से अच्छी होगी औऱ उसका सम्मान भी बढ़ेगा।

लुण चुण लियो, मुरातब कियो, कण काजे खड़ गाहिये। कण तुस झेड़ो, होय नवेड़ो , गुरमुख पवन उड़ाइये। पवणा डोलै तुस उड़ेला, कण ले अर्थ लगाइए। जिसका सब्दार्थ है जब फसल पक कर तैयार हो जाती है तो उसे चुन-चुन कर इकठ्ठा किया जाता है और दाने निकालने के लिए गाहटन (पूरानी लाटा/खळ्ळा निकालने कि पद्धति) किया जाता है। फिर हवा की मदद से गुरु का ध्यान करके दाने को भूसे से अलग किया जाता है और अन्न के दाने को एकत्र कर सत्कार्यों में उपयोग ले लिया जाता है।

सब्द 31 में गुरु जाम्भोजी कहते है भल मूल सींचो रे प्राणी, ज्यूँ तरवर मेलत डालूं अर्थात् हे प्राणी! भली मूल (जड़) को सींचो जिससे वृक्ष बड़ा होकर अच्छे फल देगा। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है, कि हमें अच्छे पौधों की समय से सिंचाई करनी चाहिए ताकि वो फल देवें। खेती के संदर्भ में खराब पौधे खर पतवार हो सकते है जिन्हें सींचने की बजाय समय पर निकाल कर उपयोग कर लेना चाहिए ताकि अच्छे पौधों (फसल को) को अधिक पानी और खाद मिल सके। यहां इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हमें वर्जित (गैर कानूनी) पौधों की खेती या गैर कानूनी खेती नही करनी चाहिये।

सब्द 34 में गुरु जाम्भोजी कहते है फुरण फुंहारे कृषणी माया, घण बरसन्ता सरवर नीरे। तिरी तिरंते तीर। जे तिस मरे तो मरियो अर्थात् ईश्वर की कृपा से बादल फुहारों के रूप में बारिश करते हैं जिससे तालाब भर जाते है। कुछ तैराक इन तालाबों में नहाकर, तैर कर पार भी निकल जाते है, और कुछ आलसी और डरपोक लोग तालाब में पानी के होते हुए प्यासे ही मर जाते है। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि हमें वर्षा के जल का संचय कर उसका सदुपयोग करना चाहिये।

खेत मुक्तले कृष्णो अर्थों, जे कंध हरे तो हरियो।

यानी ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से उत्तम खेती करते हुए अगर मेहनत की वजह से कंधों में दर्द हो तो भी मेहनत करते रहना चाहिए क्योंई इसका फल मीठा ही मिलेगा।

सब्द 42 : घड़े उन्धे बरसत बहुमेहा, तिहमा कृष्ण चरित बिन पड्यो न पड़सी पाणी भी हमे यह शिक्षा देता है कि बारिश के पानी को सूझ बूझ से संचय और सरंक्षण करना चाहिए क्योंकि यह बहुत कीमती है। ऐसा ही हमे सभी तरह के जल के साथ भी करना चाहिए। जल को बेकार नहीं बहने देना चाहिए।

सब्द 56 में गुरु जाम्भोजी महाराज कहते हैं दान सुपाते, बीज सुखेते, अमृत फूल फलिजे अर्थात् दान सुपात्र को देना चाहिये और खेत को तैयार करके उसे उपजाऊ बनाकर व समय पर ही बीज डालना चाहिये तभी अमृत फूल रूपी फल (समूचित मेहनत का सर्वाधिक लाभ) मिलेगा। 

सब्द 62 में गुरु जाम्भोजी ने कहा है एक जूं औगुण रामे कियो, अणहुंतो मिरघो मारण गइयो अर्थात् जब लक्ष्मण शक्तिबाण से घायल हो जाते हैं तो राम उन्हें कुछ संभावित दोष गिनाते हुए पूछते है कि क्या तुमने फलां-फलां दोष किये। तो लक्ष्मण उन सब दोषों को नकारते हुए कहते है कि मैने तो नहीं लेकिन हे भ्राता श्रेष्ठ श्रीराम! एक दोष आपने अवश्य किया था जब एक हिरण (नकली हिरण) को मारने के लिये गए थे। इससे हम किसानों को भी शिक्षा मिलती है कि हमे ब्लेड वाली तारें लगाकर और कुत्ते छोड़कर बेचारे हिरणों और वन्य जीवों को मारना नहीं चाहिए। हमें अपनी खेती की रखवाली और रक्षा का अधिकार तो है लेकिन उसके लिए किसी जानवर को मारने का अधिकार हमे नहीं है।

सब्द 70 में गुरु जाम्भोजी महाराज ने फरमाया है भल बाहीलो, भल बीजीलो, पवणा बाड़ बुलाई,जीव के काजे खड़ो ज खेती। तामें ले रखवालों रे भाई। जिससे अभिप्राय है कि हमें जमीन को अच्छी तरह तैयार करने के पश्चात अच्छे बीज बोकर व खेत के चारों और बाड़ बनाकर उस खेती की रखवाली भी करनी चाहिए। तभी हमारी फसल बचेगी। इससे यह तो स्पष्ट है कि किसानों को बाड़ लगाकर अपनी खेती की रक्षा करना जायज है लेकिन ब्लेड वाली तारें लगाकर जीवों को मारना या उन्हें घायल करना गलत है। इस हिसाब से तो बाड़, या करंट वाली तार ही बेहतर है जिससे जंगली जीव डर के भाग जाते है लेकिन घायल नही होते और न मरते हैं।

वहीं सब्द 85, में सद्गुरु महाराज जी कहते हैं भोम भली, कृसाण भी भला, खेवट करो कमाई। अर्थात् अच्छी उपजाऊ भूमि हो (या उसे उपजाऊ बनाया जाये) व किसान भी समझदार और मेहनत से कमाई करें तथा फसल की चोरों से रक्षा करें तो अच्छी फसल अवश्य होगी।

सब्द 108 गुरु जम्भेश्वर जी साधकों को संबोधित करते हुए कहते हैं 

हालीलो, भल पालीलो, सिध पालीलो, खेड़त सुना राणो। 

चंद सूर दोय बैल रचिलो, गंग जमन दोय रासी।

संत संतोष दोय बीज बीजीलो, खेती खड़ी आकाशी।

चेतन रावल पहरे बैठे, मृगा खेती चर नही जाई। 

गुरु परसादे, केवल ज्ञाने, सहज स्नाने, यह घर रिद्ध सिद्ध पाई।

यहां गुरु जाम्भोजी किसान और खेती का उदाहरण देते हुए साधना करने वाले साधकों को समझा रहे है कि हे किसानों! अच्छे से जमीन तैयार करके, बेलों को नियंत्रित करके व सचाई और संतोष रूपी अच्छे बीज बोकर खेती करोगे तथा उसकी चोरों से रखवाली करोगे तो खेती आकाश को छुएगी (बढिया होगी) और घर परिवार में रिद्धि सिद्धि आएगी।

सब्द 111 में जीवन जीने की‌ सहज पद्धति बताते हुए गुरु महाराज ने कहा है  खरड़ ओढीजे, तुम्बा जीमीजे, सुरहे दुहिजे, कृत खेत की सींव में लीजे, पीजे ऊंडा नीरुं जिसका अर्थ है कि मोटा पहने, मोटा खाएं, गौपालन करें, और अपनी सीमा में ही खेती करें।  अर्थात् गुरु जाम्भोजी ने हमें सादा, सहज, स्वस्थ जीवन और खानपान का कहा और अपनी सीमाओं, मर्यादाओं का पालन करने को कहा है। देखा गया है कि कुछ किसान अपनी सीमा से बाहर जाकर दूसरे किसान के खेत में (या सरकारी जमीन पर) चोरी छिपे , धोखे, जोर जबर्दस्ती से खेती कर लेते है। गुरु जाम्भोजी ने उन्हें ऐसा करने के लिये मना किया है। हमें अपनी सीमाओं , मर्यादाओं में ही रहना चाहिए चाहे वो सीमा देश की, खेत की, कानून की, पंथ की, परिवार की ही हो।

खेती-बाड़ी से संबंधित आलेखों की इस श्रृंखला में हम आगे के लेखों में चर्चा करेंगे कि प्राचीन कृषि पद्धति (वैदिक/ऋषि कृषि) केसी थी, फिर साठ के दशक में हरित क्रांति के नाम पर क्या हुआ और सत्तर के दशक में विश्व में और बाद में भारत में प्राकृतिक और जेविक खेती की आवाज क्यों उठी और अब क्या स्थिति है। विदेशों में खेती कैसे की जाती है।

हम इन सब कृषि विधियों का विस्तार से वर्णन करके चुन चुन लिया रत्ना मोती लेकर ऐसी कृषि विधि के बारे में बात करेंगे जो गुरु जाम्भोजी की शिक्षाओं और जांभाणी मूल्यों के अनुसार हो, धरती, जल, वायु, पर्यावरण , स्वास्थ्य, अन्य जीवों को नुकसान पहुंचाने वाली ना हो, सहज, रासायनिक जहर मुक्त, किसान हितेषी और टिकाऊ हो।

हमने ऐसी खेती को उत्तम खेती का नाम दिया है। इसके लिये हम जैविक-प्राकृतिक खेती के सिंद्धान्त, इतिहास, विधि, प्रचलन, लाभ, चुनोतियाँ, सावधानियां, कचरे से जैविक खाद और जैविक कीटनाशक, खरपतवारनाशक कैसे बनाएं, धरती को उपजाऊ, फसल उत्पाद को स्वास्थ्य वर्धक और लाभदायक कैसे बनाये , इत्यादि पर चर्चा अगली कड़ियों में जारी रखेंगे ताकि हम उत्तम खेती कर सकें।


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