उत्तम खेती : वेदों में खेती का वर्णन | आरके बिश्नोई

 उत्तम खेती : वेदों में खेती का वर्णन | आरके बिश्नोई


भारत शुरू से ही कृषि प्रधान देश रहा है। यहाँ खेती को उत्तम माना गया था और खेती एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई। वेदिक खेती उसे कहते है जिसका वर्णन वेदों और अन्य सनातन धर्मग्रंथों में मिलता है। चूंकि वेदों की रचना हमारे महान ऋषियों ने की है इसलिये इसे ऋषि कृषि भी कहा जाता है।

जम्भवाणी दर्शन में भी वेदों की महत्ता को श्री गुरु जाम्भोजी ने कई बार उद्गार किया है यथा "मोरा उपख्यान वेदूँ, कण तंत भेदूँ", "वेद गर्थ उदगारुं", "सहजे, शीले, सबदे, नादे, वेदे" इत्यादि।

उत्तम खेती : वेदों में खेती का वर्णन | आरके बिश्नोई


इस आलेख में हम बात करेंगे कि वेदों में और अन्य प्राचीन ग्रन्थों में खेती/कृषि के बारे में क्या लिखा हुआ है? यह आलेख आपके लिए रुचिकर व उपयोगी सिद्ध होगा। इस आलेख को पूरा पढ़ें।

वेदिक खेती

अथर्ववेद के अनुसार अन्न ही सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। अन्न के बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही अन्न की समस्या हुई। इसलिए वेदों में अन्न को विश्व की प्रमुख समस्या बताया गया है। इसके निवारण के लिए कृषि का आविष्कार हुआ। कृषि-विज्ञान मानव जीवन से साक्षात् रूप से जुड़ा हुआ है। कृषि के द्वारा ही अन्न की प्राप्ति होती है।

वेदों में खेती/कृषि को बहुत अधिक महत्व दिया गया है क्योंकि यह लोगो और पशुओं के भोजन और लोगों  आजीविका का मुख्य साधन है।

ऋग्वेद में लिखा है कि जुआ छोड़ना चाहिए और खेती की कला सीखनी चाहिए और सम्मान के साथ धन पाना चाहिए। कृषि संपति और मेघा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है। कृषि कार्य को गौरव का कार्य माना जाता था। कवि और विद्वान भी कृषि करते थे। कृषि और अन्न से ही मनुष्य का जीवन संभव है। प्राचीनकाल में कृषि विशेषज्ञों को ‘‘अन्नविद्’’ नाम दिया गया था। सर्व प्रथम उन्हाेने ही कृषि के नियम बनाए थे।

कृषि के आविष्कारक : राजा पृथी (प्रथु)  को कृषि के आविष्कारक / जनक माना जाता है।

 

ऋग्वेद व अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि राजा वेन के पुत्र राजा पृथी कृषि विद्या के प्रथम आविष्कारक थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम कृषि विद्या के द्वारा विविध प्रकार के अन्नों के उत्पादन का रहस्य ज्ञात किया। उन्होंने कृषि की और अन्न उत्पन्न किए। कृषि और अन्न पर सभी मनुष्यों का जीवन निर्भर है। इसलिए कृषिविद्यावित् की शरण में सभी लोग जाते थे।

अथर्ववेद के कृषिज्ञ सूक्त में विद्वानों और तत्ववेत्ताओं द्वारा खेती करने की जानकारी मिलती है। यथा: बुद्धिमान, ज्ञानी व क्रान्तदृष्टा लोग दैवी सुख प्राप्त करने के लिए हलों को जोतते हैं अर्थात् कृषि करते हैं। खेती करने को विराज अर्थात् विशेष रूप से शोभित होने वाले कहा गया है। धरती माता से प्रार्थना की जाती थी - कि हे भूमि! हम सब तुझे प्राप्त करके जो कृषि कर रहे हैं वह दीर्घ आयुष्य, तेज, क्षेम अर्थात् सुख, पुष्टि और धन प्राप्त करने के लिए है। कृषि के द्वारा प्राप्त अन्न से हमें सब प्रकार के ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो यही कामना की गई है।

वैदिक विधि से होने वाली पारंपरिक खेती में मिट्टी की सेहत के साथ उत्पाद की गुणवत्ता भी बरकरार रहती थी। वैदिक कृषि में सहजीवी संबंधों (bio-diversity), फसल प्रबंधन (Crop management)  , कच्चे माल के स्थायी उपयोग (standard values of raw materials) को बढ़ावा दिया जाता था। वेदों में कई तरह की कृषि भूमि का वर्णन है।  प्राचीन कृषि में सफल फसल के लिये मिट्टी की तैयारी को बहुत महत्व दिया जाता था।

वैदिक कृषि में खेती के विभिन्न चरणों का उल्लेख है जैसे कि जुताई, बुवाई, कटाई, कुटाई और मिट्टी को तैयार करने के लिये जुताई, समतल करना, खाद डालना इत्यादि का उल्लेख है। वैदिक कृषि में मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिये विभिन्न विधियों का वर्णन है जैसे कि केंचुओं की वृद्धि, बीजोपचार, जैविक तरल खाद(अमृत पानी),  आच्छादन (मल्चिंग)इत्यादि। वैदिक कृषि में खेती और पशुपालन साथ साथ चलते है जिसे आज हम मिश्रित खेती(Integrated farming) कहते है।  वेदों में बैलों से हल द्वारा खेती , बेलों के रंग, प्रवर्ति, और बैलों के साथ मानवतावादी दृष्टिकोण रखने का सुंदर वर्णन हैं। वैदिक खेती में सिंचाई का बहुत महत्व है जिसके लिए वर्षा, नदी, कुंए, बांध, जलाशय और वर्षा  के पूर्वानुमान के तरीकों का वर्णन भी मिलता है। वेदिक खेती मूलतः जैविक खेती ही है जिसमें गाय के गौबर,  मूत्र और पोधों के अर्क को खाद के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। पुरातन कृषि विधि, प्रसार, मृदा, जल व पर्यावरण संरक्षण के साथ उत्पाद की गुणवत्ता का भी जिक्र है। जैविक खेती के तरीके भी बताए गए हैं।

कृषि गीता में वैदिक खेती को गौ आधारित बताया गया है। हर घर में गोपालन एवं पंचगव्य आधारित कृषि का वर्णन है। गोबर-गोमूत्र युक्त खाद, पंचगव्यों का घर-घर में उत्पादन किया जाता था। ऋषि मृदा की प्रकृति, क्षमता, संरचना को बेहतर समझते थे।

अथर्ववेद में कहा गया है कि देवताओं ने जल से युक्त उत्तम भूमि में मधुर अन्न- जौ, चावल आदि की खेती की उस समय इन्द्र हलों का रक्षक (सीरपति) था और उत्तमदाता मरुत गण ‘कीनाश’ (किसान) थे। वैदिक काल में किसानों को बहुत आदर मिलता था। 

अन्न उत्पादन द्वारा अभाव तथा दारिद्रता को दूर करके राष्ट्र व समाज को समृद्धि प्रदान (आर्थिक व सामाजिक उन्नति) करने के कारण ही वेदों में कृषक को अन्नपति और क्षेत्रपति कहकर उसकी स्तुति की है। खेती को सर्वोत्तम काम माना गया है। व्यापार को मध्यम और नौकरी को नीच दर्जा दिया गया है। इसीलिए कहा भी गया है:

उत्तम खेती, मध्यम बान अधम चाकरी भीख निदान।

कृषि को मानव कल्याण का साधन माना गया है। यजुर्वेद में राजा का मुख्य कर्त्तव्य कृषि की उन्नति, जन कल्याण और धन-धान्य की वृद्धि करे माना गया है। अथर्ववेद के अनुसार हमारा राजा कृषि को विशेष रीति से बढ़ावे अर्थात् जो पदार्थ मनुष्य के आरोग्य के लिए लाभदायक होते हैं। उन पदार्थों की खेती बढ़ाने का उत्साह राजा अपनी प्रजा में उत्पन्न करें। धान्यादि पदार्थ ही मनुष्य का जीवन है इसलिए जीवन को बढ़ाने वाले पदार्थ ही फल-फूल, कंद-मूल, धान्य आदि ही बढ़ाने चाहिए। मनुष्यों ने  अन्न युक्त शक्तियों से कहा और पुकारा कि आप हमारे पास आओ। मनुष्यों को धान्यादि को जड़ दृष्टि से नहीं देखना चाहिए परन्तु उसके अन्दर परमात्मा की जीवनशक्ति है उसको देखना चाहिए और उसी दृष्टि से धान्यादि उत्पन्न करने चाहिए। उसी दृष्टि से धान्यादि का सेवन भी करना चाहिए। यदि यह दृष्टि मनुष्यों में जीवित और जागृत हो जायेगी तब वह तंमाखू, भांग, अफीम, गांजा आदि क्यों उत्पन्न करेगा क्योंकि जो इन पदार्थों का सेवन करता है वह अपनी सन्तान के साथ क्षीण और रोगी होता है और अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। वेदों  में कृषि के लिए आवश्यक सभी तत्वों/चीजों और उत्पादों का वर्णन किया गया है जैसे कि भूमि, जल, बीज, खाद, वायु, धूप, कीटनाशक, बैल, औजार,  अन्न, वृक्ष, औषधियां और गौपालन इत्यादि।

कृषि के लिए सबसे पहली आवश्यकता भूमि की है। यजुर्वेद के अनुसार बीज बोने का सर्वोत्तम स्थान भूमि को बताया है। भूमि सब लोगों की माता है। उस माता की उपासना करने का नाम खेती है। किसान साल भर अपनी मातृभूमि की सेवा करता है। इसलिए माता प्रसन्न होकर, उसको विविध प्रकार के अन्न व पेय  देती है। उसका माता के तुल्य आदर करो। अथर्ववेद भूमि को माता और इंसानों को  उसके पुत्र मानता है। यजुर्वेद में  मधुर अन्नों के उत्पादन का स्पष्ट वर्णन है। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में पृथ्वी को विश्व का भरण-पोषण करने वाली, समस्त ऐश्वर्यों को धारण करने वाली, सबकी आधारशिला, सुवर्णादि को अपने वक्षस्थल में धारण करने वाली, शक्तिशाली सम्राट बाली, अग्नि को धारण करने वाली आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। यजुर्वेद में कहा है कि हे पृथ्वी माता, हम कृषि के लिए, कल्याण के लिए, रक्षा के लिए, ऐश्वर्य के लिए तुम्हारा नमन करते हैं। ऋग्वेद में अलग-अलग तरह की भूमि के भेद व गुण बताये गए है। खलिहान में रखे हुए अन्न को ‘खल्य’ कहते हैं और खलिहान में नमी के कारण कुछ कीड़े भी अन्न में लग जाते हैं उन्हें ‘खलज’ कहा जाता है। इनसे अन्न की रक्षा करने का भी विधान है।

वेदों में एक प्रकार की भूमि का वर्णन है जो गौ और पशुओं के चारे और चराने के लिए (गौचर) रखी जाती है। अथर्ववेद में अनुसार खेती करने वालों को इसका अवश्य ध्यान करना चाहिए कि गांव में ऐसी भूमि गौवों के नाम से चराई के लिए रखी जाय जहां गौवें दिन भर घास खाती और आनन्द से पुष्ट होती रहें। कृषि के लिए जल अति आवश्यक है। यजुर्वेद में वर्षा के लिए प्रार्थना की गई है। अथर्ववेद में अन्न के लिए उत्तमभूमि और वर्षा की आवश्यकता बताई गई है। वर्षा से पृथ्वी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। भूमि को  वर्षा द्वारा पालित और वर्षा से उर्वराशक्ति की वृद्धि का उल्लेख है। यजुर्वेद में कृषि के साथ ही वृष्टि का उल्लेख है। बिना वर्षा के कृषि सफल नहीं हो सकती है। उत्तम कृषि के लिए जल और औषधियों के उपयोग का वर्णन है। जहां पर पर्याप्त वृष्टि (बारिश) नहीं होती है वहां अन्य स्थानों से नहरों द्वारा जल लाकर कृषि करनी चाहिए। ऋग्वेद , अथर्ववेद और यजुर्वेद में अनेक प्रकार के जलों का वर्णन मिलता है जो  कल्याण कारक होंते है। वेदों के अनुसार हमें वर्षा पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए अपितु वेदों में बताए गए किसी भी जल से सिंचाई का प्रबन्ध करके अन्न उत्पन्न करना चाहिए। विषक्त व प्रदूषित जल से सिंचाई नहीं करनी चाहिए। ऋग्वेद में इस प्रदूषण को दूर करने के लिए भी निर्देश दिया गया है।

खेती की सार्थकता तभी सम्भव है जब खेतों में बोए हुए अन्न को उत्तम खाद और स्वच्छ जल से बढ़ाया जाय और इस प्रकार उत्तम अन्न ही स्वास्थ्यप्रद व प्राण दायक सिद्ध होता है। वेदों में यथोचित् वर्षा की कामना की गई है। जैसा बीज होगा वैसी ही फसल होगी। ऋग्वेद के अनुसार उत्कृष्ट अन्न के लिए उत्तम कोटि का बीज बोना चाहिए। यजुर्वेद के अनुसार भू परिस्कार के बाद ही बीज बोना चाहिए। उत्तम खेती के लिए यजुर्वेद में औषधियों के जल एवं उनके मधुर रसों के साथ बीज बोने का वर्णन है। जिससे बीजों में औषधियों की शक्ति ओर गुणवत्ता बढ़ जाती है। वैदिक ऋषियों का विश्वास था कि उत्तम खेती के लिए कृषक स्वयं ही अपनी भूमि में बीज बोए और वह बीज भी स्वदेशी ही होना चाहिए। इसलिए कहा गया है- अपने खेत में पराए बीज एवं पराए लोगों द्वारा बीज न बोए जाएं। इसीलिए कहा जाता है 

जैसा अन्न होगा वैसा ही मन होगा।

यजुर्वेद में कृषि के लिए वर्षा और वायु का एक साथ उलेख है। अथर्ववेद में अवितत्त्व, रक्षक तत्त्व का उल्लेख मिलता है जिसके कारण ही वृक्षों और वनस्पतियों में हरियाली है। कृषि के लिए धूप की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि पेड़-पौधों को धूप नहीं मिलती है तो वे बढ़ते नहीं हैं। सूर्य की किरणों से ही पेड़ों में ऊर्जा आती है और उन्हें ग्लुकोस के रूप में भोजन मिलता हैं यजुर्वेद के अनुसार सूर्य की किरणें बीजों की उत्पत्ति और उनकी वृद्धि में कारण हैं। सभी अग्नियों का सहयोग कृषि को प्राप्त हो। सूर्य की किरणों से न केवल ऊर्जा मिलती है अपितु कृषि के लिए वृष्टि का भी कारण है।

भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद का उपयोग होता था। खाद को कृषि भूमि का भोजन कहा जाता है। खाद पोधों का खाद्य पदार्थ होता है। यजुर्वेद में भूमि को उत्तम खाद आदि द्वारा दृढ एवं परिपुष्ट करने तथा पृथ्वी की हिंसा न करने का आदेश दिया है।

गुरु जाम्भोजी, बिश्नोई समाज और गौ रक्षा

आजकल के कृषि वैज्ञानिक सनई व ढैंचा जैसी औषधियों और वनस्पति से तैयार की जाने वाली जिस हरी खाद को महत्त्व दे रहे हैं उसके प्रयोग का उल्लेख हजारों साल पहले यजुर्वेद में किया है। अर्थात् मैं पृथिवी को जल से अपने खेतों को भलीभांति सींचता हूं और मैं जलों व औषधियों के रस से अपनी कृषिभूमि को संयुक्त करता हूं। इस प्रकार है ताकि इस प्रकार से उत्पन्न बलदायक अन्न के सेवन से बलवान बनूं। वेदों में कृषि को उपजाऊ बनाने के लिए हरी खाद के अतिरिक्त गौ अपशिष्ट(गोबर) की खाद का उल्लेख है। क्योंकि उसी के प्रयोग से स्वास्थ्यप्रद एवं बलवर्धक अन्न उत्पन्न किया जा सकता है। अथर्ववेद में वर्णन है कि गोशाला में निर्भय होकर एवं परस्पर मिलकर रहती हुई तथा श्रेष्ठ (गोबर) का खाद उत्पन्न करने वाली और शान्त व मधुर रस (दूध) को धारण करती हुई गौएं निरोग स्थिति में हमारे पास रहें। गौखाद के लिए वेदों में अनेक मन्त्र हैं। अथर्ववेद में खाद को फलवती कहा है।

कृषि को उपजाऊ बनाने के लिए घी-दूध एवं शहद का वैज्ञानिक रीति से प्रयोग किया जाता था। विशेष प्रकार के अन्नों तथा फलदार वृक्षों वनस्पतियों को उगाने के लिए इस विधि को अपनाया जाता था। यजुर्वेंद में माधुर्य गुण युक्त अन्नों के उत्पादन का वर्णन है।


सुरक्षा एवं कृमिनाशक : वैदिक खेती


उत्तम भूमि और अच्छे बीज आदि के होने पर भी यदि खेत की सुरक्षा नहीं की जाएगी तो कृषि-उत्पाद ठीक नहीं होगा। अतः सुरक्षा अत्यधिक आवश्यक है। यजुर्वेद में कहा गया है कि हमारी कृषि उत्तम फल से युक्त हो। यजुर्वेद में चार शब्दों से कृषि की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है, उत्पादन की क्षमता वाला (अर्थात् उत्तम बीज),  उत्तम उत्पादन,  हल के प्रयोग से उत्तपन अन्न,  कृषि को कृषि नाशक  तत्वों (हानिकारक कीटों) से बचाना। इस प्रकार कृषि के लिए आवश्यक है उत्तम बीज, उत्तम उत्पाद, सफल कृषि और कृमि-कीट आदि से बचाव। इसके अतिरिक्त अतिवृष्टि ओर अनावृष्टि को भी खेती के लिए हानिकारक माना गया है। यजुर्वेद में अनेकों प्रकार के अन्नों का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में बाहर अनाजों के नाम प्राप्त होते हैं जैसे कि धान, जौ, उड़द, तिल, मूंग, चना, कंगुनी, चावल, सांवा, कोदों या तिन्नी धान, गेहूं, मसूर इत्यादि।

वेदों में अन्नों के अतिरिक्त वृक्षों और वनस्पतियों फलवाली, फूलवाली, बिना फूलवाली औषधियों जड़ी-बूटियों का विस्तृत वर्णन मिलता है। वेदों में वस्त्रों के बुनने का भी वर्णन मिलता है। उस समय अधिकतर खेतों की जुताई बैलों द्वारा कि जाती थी। छः और आठ बैलों से चलने वाले हलों का भी वर्णन है।इसके अलावा हाथ से खुदाई करने के लिए कुदाल, बेलचा, फावड़ा और खुरपा होता था। जिन्हें वेद में खनित्र कहा जाता था। धान्यादि उत्पन्न होने के बाद उसको काटने के लिए हंसिया तथा दांती चाहिए वेदों में इसे दात्र, सृणि कहा गया है।  फसल काटने के बाद भूसा आदि अलग करने के लिए छज (शूर्प), तिलक (छननी) का प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार धान्य को साफ करके सुरक्षित रखा जाता था।

पशु पालन का भी कृषि के लिए उपयोग होता था। इसलिए वेदों में पशुओं के संवर्धन आदि का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। गाय को विराट ब्रह्म का प्रतीक बताते हुए उसकी हत्या का निषेध किया गया है। इसमें सभी देवताओं का निवास बताया गया है। गाय को सौभाग्य का रूप बताया गया है। जहां गाय का पशुओं का संरक्षण होता है, वहां धन धान्य की वृद्धि होती है।जहां गाय का संरक्षण होता है वहां सौभाग्य की वृधि होती है। यजुर्वेद के अनुसार गाय, नील गाय, ऊंट, भेड़, श्रभ, भैंसा, दो पैर और चार पैर वाले पशुओं, घोड़े की हत्या नहीं करनी चाहिए।

वेदों में उत्तम खेती का आधार यज्ञ को बताया गया है।   यज्ञ को परमात्मा का रूप माना गया है। उसे संसार का केन्द्र या नाभि कहा गया है। सम्पूर्ण सृष्टि चक्र यज्ञ के द्वारा चलायमान है। यह यज्ञ प्रकृति में स्वाभाविक रूप से चल रहा है। इसमें बसन्त ऋतु घी का, ग्रीष्म ऋतु समिधा का और शरद् ऋतु सामग्री का कार्य कर रहा है। यजुर्वेद से यज्ञ से खेती को होने वाले लाभों की विस्तृत जानकारी मिलती है। गीता में कहा गया है यज्ञ से बादल बनते हैं। बादलों से वृष्टि और उससे अन्न होता है। अन्न से ही प्राणीमात्र की उत्पत्ति होती है। कृषि भूमि तथा विशाल कृषि क्षेत्रों के आसपास विशेष अवसरों पर अर्थात् फसल की बुआई और वृद्धि के समय वैदिक यज्ञ विज्ञान के अनुसार निर्मित हवन सामग्री के द्वारा विशाल यज्ञ किए जायें। जिससे कृषि भूमि तथा उसके निकट का समस्त वातावरण तथा जलवायु आदि परिशुद्ध परिपुष्ट व रोगाणुओं से रहित होकर पर्याप्त स्वास्थ्यप्रद अन्न की उत्पत्ति हेतु बन जाए। साथ ही यज्ञ कुण्ड की राख तथा गौ आदि पशुओं  से निर्मित खाद को कृषि भूमि व उसमें उगी फसल में विखेरा जाए। 

जब यज्ञ से परिपूरित पृथ्वी पर, यज्ञ से परिशुद्ध मेघ बरसेंगे, यज्ञ से सुगन्धित वायु प्रभावित होगी, यज्ञ में उच्चरित वेद मन्त्रों की ध्वनि एवं विश्व कल्याण की भावनाओं से भावित परिश्त व परिपुष्ट पृथ्वी जल व वायु के सम्पर्क से उत्पन्न अन्न व फल प्राणीमात्र के लिए सुखदायक, मन और बुद्धि को सशक्त व शुद्ध बनाने में समर्थ हांगे। जिससे समूचे समाज का वातावरण सौहार्दमय, शान्तिमय तथा आनन्दमय बन जाएगा। इस प्रकार अन्न को विषाक्त करने वाले तथा भूमि की शक्ति को क्षीण करने वाले, कृत्रिम एवं महंगे रासायनिक खादों से बचा जा सकता है।

कृषि के बारे में  वेदों के अलावा अनेकों अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी विवरण मिलता है, जैसे कि ऋषि सुरपाल रचित वृक्षायुर्वेद, वराहमिहिर की वृहत संहिता, मनुस्मृति, नारद स्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण, कृषिपरायण, कौटिल्य का अर्थ शास्त्र, कृषि गीता  इत्यादि। वृहत संहिता में उपरोपण (grafting) की विधियां, कलम को मिट्टी, गोबर से ढककर बांधने का वर्णन,  समय, मौसम के अनुसार पोधों को पानी देने का समय, संख्या,  अलग अलग पोधों को लगाने का मौसम इत्यादि का वर्णन है।  गर्मी में प्रतिरोपण किये पोधे को प्रतिदिन सुबह और शाम को पानी देने,  सर्दी में एक दिन छोड़कर पानी देने और वर्षा काल में मिट्टी के सूखने पर पानी देने का वर्णन है।कृषि के इतिहास का संक्षिप्त वर्णन  A concise history of science in India नामक पुस्तक में भी किया गया है।

वैदिक काल में ही खैती की महत्वपूर्ण क्रियाएं, औजार इत्यादि का प्रयोग होता था और गेंहु, धान, जौ इत्यादि का उत्पादन होता था। सिंचाई की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। वर्षा के पूर्वानुमान और जुताई, बिजाई के सही समय की विज्ञान विकसित थी। चक्रीय पद्धति द्वारा मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाने का प्रचलन था जिसे विदेशों में हमारे से ही सीखा और अपनाया। हमारे महान ऋषियों ने अन्य विषयों की तरह खेती पर भी ज्ञान देकर लोगों को लाभान्वित किया। पराशर ऋषि कृत कृषि पराशर काफी प्रसिद्ध है। ऋषि पराशर महर्षि वशिष्ठ के पोते थे। कृषि पराशर में कृषि के सिंद्धान्त है, और जैविक खेती, टिकाऊ खेती को बढ़ावा दिया गया। बारिश को योजन और अंगुली से मापने का वर्णन मिलता है। एक अंगुली आज के 6.4 सेंटीमीटर वर्षा माप के बराबर होती है। बीजवपन (बीज संग्रह) के बारे में अच्छी जानकारी का वर्णन है, जैसे कि माघ-फाल्गुन महीने में संग्रह करके, धूप में सुखाना चाहिए औऱ बाद में अच्छी तरह सुरक्षित रखना चाहिए। कृषि पराशर के अनुसार बीजों के चयन, भंडारण, उपचार पर ध्यान देना चाहिए।   प्राप्त करने के लिए है। कृषि के द्वारा प्राप्त अन्न से हमें सब प्रकार के ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो यही कामना की गई है


वर्तमान समय में रासायनिक खादों के अन्धाधुन्ध प्रयोग द्वारा वर्ष में अनेक फसल उपजाकर भूमि की उर्वराशक्ति को क्षीण करना, कीटनाशक दवाओं का अनुचित प्रयोग करना, भूमि पर औद्योगिक कचरे, कूड़ा कर्कट तथामल-मूत्र का अनुचित रीति से विसर्जन करना, अनुचित रीति से भूमि का काटन व भूमि पर पैदा होने वाले उसके पुत्र तुल्य वृक्षों और वनों को काटना भी वस्तुतः पृथ्वी की हिंसा है। जिसका निषेध वैदिक खेती दर्शन में किया गया है।कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि खेतों में कार्बन समेत अन्य माइक्रो पोषक तत्वों की कमी हो गई है। पहले सनई व ढैंचा की हरी खाद और गोबर की कम्पोसट खाद का प्रयोग कर इन पोषक तत्वों को पूरा किया जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है।

आजकल के रासायनिक खाद से यद्यपि धान्य अधिक  मात्रा में पैदा होता है परन्तु निःसत्व होने के कारण मनुष्य के शरीर के लिए हानिकारक ही है जिसके कारण कैंसर आदि अनेक भयानक रोग पैदा हो रहे हैं। जहां वैदिक खेती में खेती से उत्पन्न खाद्यान्न मनुष्य के लिए स्वास्थ्य प्रद होता था वहीं वर्तमान में खेती के बदलते स्वरूप में उत्पन्न खाद्यान्न से मनुष्य का स्वास्थ्य क्षीण हो रहा है।

समय के साथ किसान परंपरागत खेती से दूर होते गए और वैदिक ज्ञान भूलते गए। इसका असर मिट्टी की सेहत के साथ भूजल स्तर और पर्यावरण की गुणवत्ता, मानव स्वास्थ्य पर भी पडऩे लगा।आवश्यकता है हम  वेदिक खेती के सिद्धांतों और उनके उदेश्यों के अनुसार खेती करें ताकि खेती टिकाऊ हो, हिंसा रहित हो, धरती माता, जल, वायु, पर्यावरण प्रदूषित ना हो, किसानों को भी आर्थिक फायदा पहुंचाने वाली व उत्पादित खाद्यान्न से मानवमात्र के स्वास्थ्य लाभ हो।

संदर्भ:

  1. आर्य समाज
  2. ऑर्गेनिक इंडिया
  3. किसान वाणी

 


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